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मुख॒ꣳ सद॑स्य॒ शिर॒ऽइत् सते॑न जि॒ह्वा प॒वित्र॑म॒श्विना॒सन्त्सर॑स्वती। चप्यं॒ न पा॒युर्भि॒षग॑स्य॒ वालो॑ व॒स्तिर्न शेपो॒ हर॑सा तर॒स्वी ॥८८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मुख॑म्। सत्। अ॒स्य॒। शिरः॑। इत्। सते॑न। जि॒ह्वा। प॒वित्र॑म्। अ॒श्विना॑। आ॒सन्। सर॑स्वती। चप्य॑म्। न। पा॒युः। भि॒षक्। अ॒स्य॒। वालः॑। व॒स्तिः। न। शेपः॑। हर॑सा। त॒र॒स्वी ॥८८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:88


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (जिह्वा) जिससे रस ग्रहण किया जाता है, वह (सरस्वती) वाणी के समान स्त्री (अस्य) इस पति के (सतेन) सुन्दर अवयवों से विभक्त शिर के साथ (शिरः) शिर करे तथा (आसन्) मुख के समीप (पवित्रम्) पवित्र (मुखम्) मुख करे। इसी प्रकार (अश्विना) गृहाश्रम के व्यवहार में व्याप्त स्त्री-पुरुष दोनों (इत्) ही वर्त्तें तथा जो (अस्य) इस रोग से (पायुः) रक्षक (भिषक्) वैद्य और (वालः) बालक के (न) समान (वस्तिः) वास करने का हेतु पुरुष (शेपः) उपस्थेन्द्रिय को (हरसा) बल से (तरस्वी) करनेहारा होता है, वह (चप्यम्) शान्ति करने के (न) समान (सत्) वर्त्तमान में सन्तानोत्पत्ति का हेतु होवे, उस सब को यथावत् करे ॥८८ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुष गर्भाधान के समय में परस्पर मिल कर प्रेम से पूरित होकर मुख के साथ मुख, आँख के साथ आँख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गर्भ को धारण करें, जिससे कुरूप वा वक्राङ्ग सन्तान न होवे ॥८८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(मुखम्) (सत्) (अस्य) पुरुषस्य (शिरः) (इत्) एव (सतेन) उत्तमावयवैर्विभक्तेन शिरसा। सत् इत्युत्तरनामसु पठितम् ॥ (निघं०३.२९) (जिह्वा) जुहोति गृह्णाति यया सा (पवित्रम्) शुद्धम् (अश्विना) गृहाश्रमव्यवहारव्यापिनौ (आसन्) आस्ये (सरस्वती) वाणीव ज्ञानवती स्त्री (चप्यम्) चपेषु सान्त्वनेषु भवम्। चप सान्त्वने धातोरेच् ततो यत्। (न) इव (पायुः) रक्षकः (भिषक्) वैद्यः (अस्य) (वालः) बालकः (वस्तिः) वासहेतुः (न) इव (शेपः) उपस्थेन्द्रियम् (हरसा) हरति येन तेन बलेन (तरस्वी) प्रशस्तं तरो विद्यते यस्य सः ॥८८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा जिह्वा सरस्वती स्त्र्यस्य पत्युः सतेन शिरसा सह शिरः कुर्यादासन् पवित्रं मुखं कुर्यादेवमश्विना द्वाविद्वर्त्तेताम्, यदस्य पायुर्भिषग् वालो न वस्तिः शेपो हरसा तरस्वी भवति, स चप्यन्न सद् भवेत्, तत्सर्वं यथावत्कुर्यात् ॥८८ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रीपुरुषौ गर्भाधानसमये परस्पराङ्गव्यापिनौ भूत्वा मुखेन मुखं चक्षुषा चक्षुः मनसा मनः शरीरेण शरीरं चानुसंधाय गर्भं दध्याताम्, यतः कुरूपं वक्राङ्गं वाऽपत्यन्न स्यात् ॥८८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्री-पुरुषांनी गर्भाधानाच्या वेळी परस्पर प्रेमानेयुक्त होऊन मुखाबरोबर मुख, नेत्राबरोबर नेत्र, मनाबरोबर मन, शरीराबरोबर शरीर जुळवून गर्भधारणा करावी म्हणजे कुरूप किंवा वक्रांग संतान होणार नाही.